क्या सिर्फ विधुत गाड़ियाँ ही पर्यावरण को कायम रख सकती हैं?
- कार्बन उत्सर्जन हो या चार्जिंग स्टेशनो की बात, विद्युत यातायात से जुड़े सब सवालों के जवाब
Girish Karkera is a car and bike nut who managed…
अगर आपको लगता है कि बिजली से चलती कारें कोई नयी बात हैं, आप दोबारा सोचें। इतिहास ने बिजली की मोटर से चलने वाली पहली गाड़ी को 1800 की शताब्दी के बीच में रिकॉर्ड किया है। ये पहली मानी जाने वाली 'कार' - एक चार पहियों की इंटरनल कम्बस्टिबल इंजन वाली गाड़ी - के आने से 50 साल पहले की बात है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में स्टीम परिवहन का सबसे ज़्यादा काम आने वाला सोर्स था जिसके बाद बिजली और फिर गैसोलाइन आते थे। स्टीम से चलने वाले वाहन बहुत ही भारी और बड़े होते थे और इसीलिए बिजली से चलने वाले वाहन अपने छोटे साइज़ के कारण लोकप्रिय हो गए और पश्चिम में बहुत चलते थे।
फिर उनके कम होने का वही कारण था जो आज भी है - उनकी रेंज। जैसे-जैसे सड़कों के नेटवर्क बढ़ते गए, लोग लम्बी जर्नी करना चाहने लगे जिससे बिजली से चलती कारों की कमी सामने आ गयी। इनके मुकाबले गैसोलाइन से चल रही कारें ज़्यादा उपयोगी साबित हुईं। पूरी दुनिया में पेट्रोलियम की खोज के कारण इनको चलाना और भी आसान हो गया। इंजीनियरों ने आई.सी.ई. (इंटरनल कम्बशन इंजन) की स्वाभाविक विशेषता - उससे निकलती आवाज़ को काम में ले कर - उसके स्वरुप का इमोशनल आकर्षण और बढ़ा दिया।
इतिहास ने बिजली की मोटर से चलने वाली पहली गाड़ी को 1800 की शताब्दी के बीच में रिकॉर्ड किया है।
पिछली बार 1960 की दशक में बिजली की कारें फिर से प्रकट हुयी थीं। लेकिन कारण पर्यावरण से उतना जुड़ा हुआ नहीं था जितना कि पावर सोर्स का एक विकल्प ढूँढने के लिए था क्योंकि पूरी दुनिया पर ईंधन की कमी का संकट मंडरा रहा था। और फिर से, जैसे ही संकट टला, इलेक्ट्रिक्स में रूचि भी टल गयी जब तक कि ग्लोबल वार्मिंग की बातें शुरू नहीं हुईं। पिछले तीन दशकों से, एन्वायरनमेंटलिस्ट हमारे प्लैनेट पर मंडरा रहे खतरे की ओर हमारा ध्यान ले जाने का बहुत प्रयास कर रहे हैं कि जब तक हम ग्रीन कवर के गायब होने के बारे में और हवा में ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ती मात्रा के बारे में कुछ ठोस नहीं करते हैं, हम लोग खतरे में जी रहे हैं। ये कोई राज़ नहीं है कि आई.सी.ई. ग्रीनहाउस गैसों को बड़ी मात्रा में बनाता है - कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन पार्टिकुलेट मैटर और नाइट्रस ऑक्साइड - और पूरी दुनिया में इतने आई.सी.ई. चलते हैं। कुछ साल पहले के एक अनुमान ने इनकी संख्या 100 करोड़ से ऊपर आंकी थी। अगर आप दुपहिया वाहन जोड़ दें तो यह संख्या दुगनी हो सकती है। हाँ, केवल कारें ही हमारे पर्यावरण की हालत की ज़िम्मेदार नहीं हैं लेकिन इस बात से हम भाग नहीं सकते कि ये एक बहुत बड़ा कारण बन जाती हैं और एक ऐसी समस्या भी जिसका समाधान हो सकता है।
आई.सी.ई. कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन पार्टिकुलेट मैटर और नाइट्रस ऑक्साइड को बड़ी मात्रा में बनाता है
कार निर्माताओं ने पिछले सालों में एमिशन कम करने के लिए बहुत मेहनत की है। एक मॉडर्न कार या बाइक अपने एक्सहॉस्ट से पहले से काफ़ी कम नुकसानदायक केमिकल छोड़ते हैं। ये 10 साल पहले की गाड़ियों से काफी कम मात्रा है। लेकिन जिस तरह से हमारे प्लैनेट के पर्यावरण को तेज़ी से नुकसान पहुँच रहा है एमिशन का कम होना बहुत नहीं है। कारें नुकसानदायक चीज़ों की मानो पोस्टरबॉय बन गयी हैं क्योंकि वो सबसे ज़्यादा ज़ाहिर प्रदूषणकर्ता हैं और आसानी से देखी जा सकती हैं। लेकिन गाड़ियां आज की ज़रुरत भी हैं इसीलिए इनको इस्तेमाल न करना तो मुमकिन नहीं है। इसीलिए एक बार फिर से बिजली की गाड़ियों को देखा जा सकता है।
क्या बिजली से चलने वाली कारों में कोई कमी नहीं?
बिजली की गाड़ियों के अपने अलग नफ़ा नुकसान हैं। सबसे बड़ा फ़ायदा ज़रूर ज़ीरो एमिशन का है। मोटर चलाने के लिए बैटरी से पावर लेने का मतलब है किसी भी तरीके से तेल नहीं जल रहा है जो इंटरनल कम्बशन इंजन का मुख्य हिस्सा है। बिजली से चलने वाली गाड़ियों के अंदर की बनावट के कारण इंजन के बे एरिया और पूरी गाड़ी में हिलने वाले पार्ट कम होते हैं। कम हिलने वाले पार्ट से वियर और टियर के चांस भी कम रहते हैं। इससे मेंटेनेंस की कॉस्ट भी कम रहती है। दूसरा बड़ा फ़ायदा है गाड़ी के चलने की कॉस्ट। हम सब जानते हैं कि पिछले 10 सालों में तेल के दामों ने आसमान छू लिया है। इसके मुकाबले एक पूरे साइज़ की बिजली की कार 1 रुपये/किलोमीटर के हिसाब से चलती है। ये एक साधारण कार का सिर्फ़ 10 प्रतिशत है। सारे अकाउंटेंट इस बात को मानेंगे। साथ ही ये कारें चलने में आवाज़ नहीं करती हैं जिसके कारण ध्वनि प्रदूषण भी कम होता है ख़ासकर उनके लिए जो अपने काम के कारण हमेशा गाड़ियों में चलते रहते हैं।
एक पूरे साइज़ की बिजली की कार 1 रुपये/किलोमीटर के हिसाब से चलती है। ये एक साधारण कार का सिर्फ़ 10 प्रतिशत है
फिर नुकसान की बात आती है। सबसे बड़ा है वह पावर सोर्स जो इन भविष्य की लाखों कारों को चार्ज करेगा। बिजली का उत्पाद अभी भी बहुत सारे देशों में कोयला जला के ही किया जाता है। तो अगर इन गाड़ियों को चार्ज करने की ज़रूरत बढ़ी तो इसका मतलब यह भी है कि ज़्यादा कोयला जलाया जाएगा। इससे पूरी बात ही ख़त्म हो जायेगी क्योंकि जो एमिशन कारों के एग्जॉस्ट से नहीं होगा वो पावर प्लांट से हमारी हवा में पहुँच जाएगा। न्यूक्लिअर पावर भी अपने दूसरे नुकसानों के कारण ज़्यादा काम में नहीं ली जाती है। और क्लीन एनर्जी सोर्स जैसे सोलर, विंडमिल और हाइड्रोपावर अभी अच्छे से विकसित नहीं हुए हैं। ये रेस चल ही रही है और काफी देश इस प्रयास में हैं कि ये क्लीन एनर्जी सोर्स पूरी तरह से नुकसानदायक एनर्जी बनने के प्रोसेस को बदल दें।
दूसरा नुकसान कारों की रेंज और चार्जिंग टाइम है। औसत देखें तो नयी इलेक्ट्रिक कारों ने अपनी रेंज ज़्यादा से ज़्यादा 300-400 किलोमीटर तक दिखाई है हालांकि टेस्ला जैसी कुछ कंपनियां ज़्यादा रेंज होने का दावा करती हैं। ये न ज़्यादा सस्ती हैं और न ही आसानी से मिलती हैं। पिछले साल इंडिया ने अपनी पहली लॉन्ग-रेंज कार का प्रोडक्शन देखा - हुंडई कोना (जो 430 किलोमीटर की रेंज होने का दावा करती है)। बिजली से चलने वाले कारें इंडिया में नयी नहीं हैं। बेंगलुरु में बसी फर्म मैनी इलेक्ट्रिक ने दो दशकों से भी पहले इंडिया की पहली प्रोडक्शन-रेडी कार लॉन्च की थी जिसका नाम रेवा रखा गया। लेकिन यह एक छोटे मार्किट की कार है क्योंकि इसमें सिर्फ दो लोग बैठ सकते थे और इसकी रेंज केवल 50-60 किलोमीटर थी। महिंद्रा ने ये कंपनी खरीदी और रेवा को एक नए अवतार में बनाया जिससे वह ज़्यादा बड़ी और काम में आने वाली हुई जिसका नाम इटूओ रखा गया जिसकी रेंज 100 किलोमीटर तक पहुंची। लेकिन यह भी मुश्किल से बिकी और इसीलिए कंपनी को कुछ नया सोचना पड़ा। उन्होंने अपनी रेगुलर कारें जैसे कि वाइब और वेरिटो के बिजली से चलने वाले मॉडल बनाये लेकिन यह भी ज़्यादा अच्छे नहीं चले। इसीलिए अब कंपनी एक नए तरह से सोच रही है और नयी कारों की रेंज बना रही है। लेकिन यह तो भविष्य की बात है। 2020 के पहले दो महीनों में ही इंडिया में काफ़ी नयी इलेक्ट्रिक कारें आएँगी जैसे एमजी ज़ेड एस इवी जो 340 किलोमीटर की रेंज होने का दावा करती है, टाटा नेक्सॉन इवी (अनुमानित 300 किलोमीटर की रेंज) और इंडिया की पहली पूरी लक्ज़री कार - ऑडी इ-ट्रोन। मारुति भी अपनी लोकप्रिय छोटी कार वैगनआर का बिजली वाला मॉडल बना रही है। ये सभी कंपनियां पहले मूव करने का फ़ायदा देख रही हैं क्योंकि इलेक्ट्रिक्स को अच्छे विकल्पों के तौर पर निकटतम भविष्य के रूप में देखा जा रहा है खासकर जब और कोई उतना प्रभावशाली और सस्ता विकल्प न हो।
औसत देखें तो नयी इलेक्ट्रिक कारों ने अपनी रेंज ज़्यादा से ज़्यादा 300-400 किलोमीटर तक दिखाई है हालांकि टेस्ला जैसी कुछ कंपनियां ज़्यादा रेंज होने का दावा करती हैं।
कुछ समय पहले ऐसा लग रहा था कि सरकारी डिपार्टमेंट और संस्थाएं जल्द-से-जल्द इंडियन ऑटोमोटिव इंडस्ट्री के लिए एक पूरा इलेक्ट्रिक एजेंडा बनाने के लिए उत्सुक थे। उनके इरादे अच्छे थे लेकिन लागू करने के लिए किसी ढंग के प्लान के न होने से बहुत उलझने आयीं। अब ऐसा कहा जा रहा है कि एक ज़्यादा प्रैक्टिकल रोल-आऊट प्लान बन रहा है। कितना प्रैक्टिकल होगा वो तो आगे ही पता चलेगा।
"अधिकतर गाड़ियों की कंपनियां कहती हैं कि एक घंटे में कम-से-कम 80% चार्ज हो जाएगा लेकिन यह रेगुलर रिफ़िल की आसानी के आस-पास भी नहीं आता"
कुछ पश्चिमी देशों में टैक्स रिबेट और रोज़ की उपयुक्तताएँ जैसे फ़्री पार्किंग की जगह देकर इलेक्ट्रिक कारों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा रहा है। दिल्ली सरकार ने भी ऐसी नीति लागू की है। लेकिन हाँ, ये काफ़ी लोकल है। लग रहा है कि चार्जिंग के इंफ्रास्ट्रक्चर को बनाने का काम प्राइवेट कंपनियों पर ही छोड़ा जाएगा। अधिकतर कंपनियां इस दिशा में काम कर रही हैं। हुंडई और एमजी जैसी कंपनियों ने इसके लिए प्राइवेट कंपनियों से टाई-अप भी किया है। टाटा मोटर्स ने अपनी ग्रुप कंपनी टाटा पावर को 300 चार्जिंग स्टेशन बनाने का काम दिया है और स्टैंडअलोन फर्म जैसे मैजंटा मुख्य कॉरिडोर जैसे कि मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे पर अपने बल पर ये काम कर रही हैं।
फुल चार्ज की रेंज बढ़ाने पर निर्माता लगातार काम कर रहे हैं और बैटरी और चार्जिंग तकनीकें लोगों की बढ़ती ज़रुरत के हिसाब से काम में लगी हुयी हैं। गाड़ियों की रेंज दिन-प्रतिदिन बढ़ने से कार रखने वालों के लिए सबसे बड़ी चिंता कारों के चार्ज होने के समय और उसके लिए ज़रूरी इंफ्रास्ट्रक्चर होगी। अधिकतर कंपनियां एक घंटे में कम-से-कम 80% चार्ज का दावा करती हैं (अगर आप कार को एक समर्पित डायरेक्ट करंट चार्जिंग स्टेशन पर ले आएं) तो भी ये वेटिंग टाइम फ्यूल पंप पर टैंक पूरा भरवाने में लगते दो मिनटों से कहीं ज़्यादा है। रेगुलर एसी चार्जर, जो कंपनियां अभी हर इलेक्ट्रिक कार रखने वाले को दे रही हैं, पूरे रिचार्ज के लिए 6-8 घंटों का समय लेती हैं। इसको मानने के लिए पूरे लाइफ़स्टाइल का बदलाव चाहिए जिसकी आदत डालने के लिए एक जज़्बे की ज़रुरत होगी। जैसे हम ज़ीरो एमिशन होने की तरफ़ मेहनत कर रहे हैं - जो आज की ज़रुरत है - बिजली से चलने वाली कारें हमारा सबसे स्पष्ट, या शायद इकलौता, विकल्प है। पहली बिजली की कार के आने के बाद कम-से-कम 200 सालों का समय लगा उसे हमेशा के लिए रहने में लेकिन अब लगता है कि बिजली की कारों का समय अब आ गया है।
Girish Karkera is a car and bike nut who managed to carve a living out of his passion. In a career spanning 22 years as a journalist, he has spent most of it following the mobility industry and evaluating newly-launched automobiles.