संस्कृति सदा रहेगी, प्रवृत्ति नहीं
- कुछ विशिष्ट लेखों के साथ, जो आपको बेहतर चुनने का आग्रह करते हैं, हम अपने स्वतंत्रता माह को मनाते हैं, अतः एथिको से जुड़ें। "आज़ादी" श्रृंखला में हम इस प्रथम लेख के माध्यम से अपनी संस्कृति को भीतर से जानने का प्रयास कर रहे हैं।
Amrita Amesur is a former corporate lawyer and is deeply…
भारतीय उपमहाद्वीप, विश्व के सामने एक ऐसी प्राचीन संस्कृति का उदाहरण है, जो अपने आप में अद्भुत है। विश्व की प्राचीनतम सभ्यता होने के कारण यहां बहुत सी समृद्ध परंपराओं का वास है, इस विचार को अनेक रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है। भारत आयुर्वेद, योग, अश्वगंधा और हल्दी जैसी अनेक लाभदायक औषधियों की भूमि है। इन अमूल्य औषधियों का भारी मात्रा में अपने उपनिवेशवादी देशों (कॉलोनाइज़रज़) को निर्यात किया गया, जिसके लिए अब तक यहां के निवासियों को पर्याप्त श्रेय नहीं मिला।
फिर भी ना जाने क्यों हम इसकी इन्द्रधनुषी संस्कृति और यहां के विभिन्न प्रदेशों, जल-वायु, और लोगों द्वारा उत्पन्न विविध बहुमूल्य उत्पादों को भूलते जा रहे हैं। आज के समय में जहां एक ओर विश्व के अन्य देश, भारतीय चाल-चलन को अपनाने की ओर बढ़ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भारतीय शहरों में वातानुकूलित सुपरमार्केट लोकप्रिय होते जा रहे हैं और देसी बाज़ार कहीं पीछे छूटते जा रहे हैं। बहरहाल, पिछले कुछ समय में, उच्च आय वर्गीय लोगों की दिनचर्या में केवल इतना ही बदलाव देखा गया है कि अब वे सुपरमार्केट और देसी बाज़ारों के बजाय महंगे कृषि बाज़ारों में जाने लगे हैं, और कुछ नहीं।
हमारे महंगे कृषि बाज़ार, पश्चिमी देशों में भीषण शीत ऋतु के दौरान, एक अरसे तक शीतनिद्रा में रहने के पश्चात्, वसंत और ग्रीष्म के दर्शनीय ऋतुओं के दौरान खुले बाज़ारों की आयातित सोच है। उनके अनुसार, इस ऋतु में, वहां के शहरी निवासी, ताज़े उत्पादों की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। किंतु एक भारतीय शहरी निवासी के लिए ताज़ा उत्पाद क्या है? वह इस तथ्य को विस्मृत कर देते हैं कि भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है और यहां, ताज़ा उत्पादों की मंडियां, प्रत्येक ऋतु के दौरान अबाधित तौर पर उपलब्ध हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के निवासियों की सम्पूर्ण जीवन शैली - धर्म, उत्सव, त्योहार, अध्यात्मिकता, साहित्य, सांस्कृतिक परम्पराएं, खाद्य प्रचलन - अति स्थानीय स्तर पर पैदा होने वाले मौसमी खाद्य उत्पादों की अपार उपलब्धता के इर्द-गिर्द केंद्रित है।
विश्व के प्रथम श्रेणी में आने वाले अनेक विकसित देश, शताब्दियों से भीषण शीत ऋतु के दौरान फ़सलों के उत्पादन के अभाव की स्थिति पर विजय प्राप्त करने के लिए डिब्बा बंद सब्ज़ियों, संरक्षित मांस-मछली और खमीरीकृत मसालों जैसी खाद्य तकनीकों को उपयोग में लाते रहे हैं। जहां उनके लिए ताज़ा उत्पादों की मौसमी उपलब्धता विशेष हर्ष का विषय होती है। वहीं दूसरी ओर, हमारे पूर्वजों द्वारा, हम लोगों के शारीरिक गठन और जलवायु की अनुकूलता में सुनिश्चित किए गए खाद्य संरक्षण और खमीरीकरण की स्वदेशी विधियों पर अवलंबित होने के कारण, भारत के अधिकांश भागों में यह एक स्थायी वास्तविकता है।
महंगी कृषि मंडी में जाकर एक शहरी व्यवसायी, एक जैविक एवोकैडो और एकल मूल शिल्प कॉफ़ी का महंगा दाम चुकाने के लिए तो खुशी खुशी तैयार हो जाता है, परन्तु वही व्यक्ति, सड़क के किनारे खड़े फल विक्रेता से कम दाम वाले फल खरीदने के लिए मोल भाव करता है और उसकी पहले से ही अति अल्प आमदनी में और अधिक घात लगाता है।
स्पष्ट है कि यह पूंजीवादी तंत्र से जन्मा एक व्यवस्थागत मुद्दा है। उदारीकरण के पूर्व वर्षों में, अल्प मानसिकता की स्थिति के दौरान हमें विदेशी उत्पादों को गृह उत्पादों की अपेक्षा अधिक महत्त्व देना सिखाया गया, बिना यह विश्लेषण किए कि वो हमारी जीवन शैली और शारीरिक गठन के अनुकूल हैं या नहीं। उदाहरणार्थ - भारतीय मध्यवर्गीय रसोईघर में विदेशों से आयातित ऑलिव ऑयल का प्रयोग बेहद प्रचलित हो गया है और इसकी कीमत स्वदेशी चक्की से निकले कच्ची घानी के तेल को चुकानी पड़ी है। इसका कारण ऑलिव ऑयल कम्पनियों द्वारा लगाई गई विशाल विपणन पूंजी है, जिसके माध्यम से उस जनसंख्या को लक्ष्य बनाया गया है जो अपने स्वदेशी तेलों को सरलता से हीन मान लेती है। ऐसे विश्वास की सतह में 'देश की बड़ी जनसंख्या का स्थानीय मिलावट वाले तेल को खाने के कारण विषाक्त हो जाना', और FSSAI द्वारा खुले और विसंकुलित तेल की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने' जैसे अन्य कारण शामिल हैं।
यदि किसी कैफ़े, बेकरी, अथवा प्रचलित रेस्तरां के मीनू पर दृष्टि डाली जाए, तो पालिओ और कीटो से लेकर वीगन और ग्लूटेन फ़्री जैसी पश्चिमी देशों द्वारा, स्वीकृत आहार प्रणालियों के प्रति झुकाव देखने को मिलेगा। प्राय: अनेक लोग इन आहार प्रणालियों से अपने स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव का समुचित मूल्यांकन किये बिना अन्धानुकरण करते हैं।
एक 'बेबी स्पिनेच और ग्रिल्ड मीट की सलाद' को पकाएं हुए रसेदार दाल-पालक और चावल से अधिक गुणकारी माना जाता है। रोटी-सब्जी की अपेक्षा सैन्डविच को; घर के बने लस्सी या छास की अपेक्षा केफ़िर मिल्क को, और घरेलू अचार की अपेक्षा साउरक्राउट को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि साउरक्राउट हमारे घरेलू अचार की अपेक्षा अधिक चमकदार, देखने में सुंदर और मसालों में कम लिथड़ा हुआ होता है। पश्चिमी देशों में विज्ञान और वैज्ञानिकों, प्रयुक्त अनुसंधानों, प्रकाशित पुस्तकों और सिद्धांतों और विपणन शब्दजाल की स्वीकृति और अनुमोदन मिलता है, जिसकी स्पर्धा में भारतीय उपमहाद्वीप पूर्वजों द्वारा खोजे गए अस्पष्ट और अव्याख्यायित पुरातन नुस्खों को नवीन रूप में प्रस्तुत करता है।
आज भारतीय संस्कृति का पुनः संवेष्टन करके वापस बेचने की प्रवृत्ति चलन में है, जो केवल योग तक सीमित नहीं है। सन् २०१६ में दी गार्डियन (The Guardian) में दिए गए एक उदाहरण के अनुसार, दक्षिण एशिया के रसोईघरों में दैनिक आहार के रूप में प्रयुक्त घी, घरेलू दही और नारियल तेल के बाद, हल्दी, एक सबसे नई खाद्य प्रवृत्ति है जो UK, US जैसे दूरस्थ देशों में भी अपनाई जा रही है। लेखक आगे कहता है - "जहां एक ओर हल्दी मिश्रित दूध एक पारंपरिक और प्राचीन पेय के रूप में थोपा हुआ दिखाई देता है, वहीं दूसरी ओर हल्दी के गर्म पेय को एक भिन्न सृष्टि के रूप में देखा जा रहा है।" पश्चिम द्वारा अनुमोदित इस आहार को भारतीय कंपनियां एक नए रूप में हमीं को बेचने के लिए तत्पर हैं।
इसी प्रकार, बाजरा, जुआर और रागी जो कि भारतीय आहार का एक अहम् भाग थे, पिछले कुछ दशकों में, उन्हें भूलकर हमने चावल को एक दैनिक आहार के रूप में सर्वाधिक चाव से अपना लिया है। किसी विशेष फ़सल या अनाज के लिए इस प्रकार की व्यापक सामाजिक स्वीकृति या प्राथमिकता, निम्न बाज़ार मांग वाली अन्य फ़सलों को मांग प्रवाह से बाहर कर देती है। सामान्य तौर पर, किसी एक ही किस्म के चावल या दाल को खाने से कृषि व्यवस्था पर एक विशेष फ़सल के उत्पादन का दबाव आ जाता है, जो एकल फ़सलीय संस्कृति के नाम से जानी जाती है। यह हमारे आहार में तथा मृदा में विविधता के अभाव, तथा अनेक अति स्थानीय अनाजों, बाजरा, अन्य उत्पादों और उनमें अन्तर्निहित पोषण के विलोपन का कारण बनता है।
बम्बई के टापुओं में विविध प्रकार की मौसमी मछलियों की उपलब्धता है और कुछ ऐसे समुदाय हैं जो श्रावण मास के दौरान शाकाहार को अपना लेते हैं, जिसके फलस्वरूप जलीय प्रजातियों को, प्रजनन के मौसम में पनपने का अवसर मिल जाता है। पर फिर भी, बहुत से सुविधा भोगी लोग और रेस्तरां समुद्री भोजन की एक समान पसंदीदा किस्मों को बड़ी मात्रा में खरीदना जारी रखते हैं और सतत रूप से मछली पकड़ने के कारण उत्पन्न खतरों की उपेक्षा करते हैं। उससे भी खराब बात यह है कि वे हज़ारों किलोमीटर दूर से हमारे तटों पर आने वाली, सस्ती और दूषित बासा मछली खरीदते हैं, जो पूरे वर्ष उपलब्ध रहती है। प्राय: रेस्तरां बासा मछली को इसलिए खरीद लिया करते हैं क्योंकि वह स्वाद और गंध से रहित होती है और विविध प्रकार के व्यंजनों के लिए अनुकूलनीय होती है। इसी कारण से कम कीमत में उपलब्ध होने के बावजूद, बासा मछली विदेशी, आयातित मछली के रूप में आसानी से बिकती है।
ऐसे व्यापारसंघों, जिनका प्राथमिक लक्ष्य केवल लाभ कमाना है ( ना कि स्वास्थ्य और संपोषण), उनके द्वारा किए गए स्थिति निरूपण को स्वीकार करने के प्रति संवेदनशील और अनुकूलित हो कर, हम सभी इन चिंताजनक स्थितियों को बढ़ावा देने के लिए समान रूप से दोषी हैं। यह समय पुनर्मूल्यांकन का समय है। हमें बहुत कुछ सीखना है, और उससे भी अधिक बातों को छोड़ना भी है।
निबंधों की इस श्रृंखला के माध्यम से, हम संपोषणीय रूप से लाभदायक खाने की आदतों का एक मार्ग निर्मित करेंगे, जिसकी शुरुआत उन आदतों से होगी जो हमारी अपनी संस्कृति में समाहित हैं। हम उन सभी आधुनिक पश्चिमी अनुभूतियों से दूर हो जाएंगे जो पूर्वी संस्कृति का, जोंक की तरह खून चूस रही हैं और फिर उसे अपने ही नाम से पेश कर रही हैं। हमें अपने आहार को दूसरों के अधिपत्य से मुक्त करना है और अपनी बातचीत को लोकतांत्रिक तरीके से इसी पर केंद्रित करना है तथा इसे पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक संपोषणीयता के मिलन बिंदु पर स्थित करना है। खाद्य संपोषणीयता हमारे लिए एक प्रवृत्ति नहीं है और ना ही कभी थी, यह हमारे लिए सर्वदा एक जीवन शैली रही है। अतः संस्कृति सदा रहेगी, प्रवृत्ति नहीं।
अमृता अमेसुर एक भूतपूर्व कॉरपोरेट वकील हैं और 'आहार' विषय से गहरे रूप में उत्साहपूर्वक जुड़ी हुई हैं। उन्होंने अपने पिछले कई महीने अपने परिवार के खाद्य अनुभवों के अध्ययन, लेखन और दस्तावेजीकरण करने में समर्पित रूप से बिताए हैं और साथ ही स्वयं को एक पाचक और लेखक के रूप में विकसित करना सीखा है। आप उनके रोमांचक अनुभवों से इन्स्टाग्राम पर जुड़ सकते हैं।
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