हमारे शहरों की आर्द्रभूमि को क्या हो रहा है?
- डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ़. इंडिया के एक ताज़ा वेबीनार में कुछ नामित लोगों के समूह ने इन प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास किया कि हमारे शहरों के जल निकाय लुप्त क्यों होते जा रहे हैं और सरकार इस विषय में क्या कर रही है।
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क्या आप जानते हैं कि विश्व की आधी से अधिक जनसंख्या शहरों में निवास करती है और सन् 2050 तक यह संख्या लगभग 2.5 बिलियन तक बढ़ जाएगी। और क्या आपको यह भी ज्ञात है कि इस बढ़ी हुई जनसंख्या का 35 प्रतिशत केवल तीन देशों में बसने का अनुमान है? उन तीन देशों में एक भारत भी है।
इस जनसंख्या के लिए शहरों में बने रहने के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता क्या है? आर्द्रभूमियां।
आर्द्रभूमि का दायरा केवल नदियों, झीलों, मैन्ग्रोव वनों, डेल्टाओं, चावल के खेतों एवं मूंगा चट्टानों तक ही सीमित नहीं है। ये जल निकाय किसी भी शहर के जीवन की रीढ़ होते हैं। ये शहर के जल संतुलन को बनाए रखने के लिए, बाढ़ सुरक्षा के लिए, सूक्ष्म जलवायु विनियमन, जैव विविधता संरक्षण के विकट आधार हैं। वे केवल भोजन, कच्ची सामग्री, जलीय ऊर्जा आदि ही उपलब्ध नहीं कराते अपितु यातायात और पर्यटन में भी बड़ी भूमिका निभाते हैं।
ऐसा क्यों है कि 1700 ईस्वी के बाद मानव जाति इन शहरी आर्द्रभूमियों के क्षय सामना करती आई है।
यही वह प्रश्न है जिसपर पिछले माह डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ़. इंडिया के प्रकृति विषयक वेबीनार में विचार किया गया था। 'स्वस्थ आर्द्रभूमियां और लचीले शहर', शीर्षक वाला यह सत्र डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ़. इंडिया के प्राकृतिक संरक्षण कार्य के 50वीं वर्षगांठ के आयोजन के एक हिस्से के रूप में जारी वेबीनारों की जारी श्रृंखला का तीसरा सत्र था।
इस वेबीनार में केवल आर्द्रभूमियों के महत्व पर ही चर्चा नहीं हुई बल्कि आर्द्रभूमि-केन्द्रित तथा आर्दरभूमि एकीकृत शहरी योजनाकार्य, शहरों में आर्दक्षेत्रों का शून्यक्षय के अंतः स्थापन की ओर बढ़ना, 'स्पॉंज सिटी' के प्रत्यय इत्यादि पर भी विचार किया गया।
आर्द्रभूमि क्षय की संक्षिप्त पृष्ठभूमि
'ग्लोबल वेटलैंड आउटलुक' के अनुसार वर्तमान समय में विश्व के आर्द्रक्षेत्र यहां के वनों की अपेक्षा तीन गुनी तीव्रता लुप्त हो रहे हैं। सामाजिक उपेक्षा तथा निर्मित पर्यावरण के प्रति एक पूर्वाग्रह, जो शहरी नियोजन में अंतर्निहित है, के कारण यह स्थितु पैदा हुई है, ऐसा माना जा रहा है। भारत में ही, नीति आयोग के पूर्वानुमान के अनुसार दिल्ली, बंगलूरू, हैदराबाद तथा चेन्नई सहित 21 शहर सन् 2020 तक भूमिगत जल से रहित हो जाएंगे।
वेबीनार के दौरान पैनल के सभापति एस. विश्वनाथ, जो एक शहरी नियोजन करता तथा 'बायोम एन्वायर्नमेंट ट्रस्ट' के ट्रस्टी भी हैं, ने कहा, "इस वर्ष के कार्यक्रमों में मुख्य विषय मानव स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य के बीच का सम्बन्ध ही रहा है।
इस वेबीनार को भविष्य में आर्द्रभूमियों के क्षय और उनके संरक्षण को प्रभावित करने वाली भारतीय योजनाओं की रूपरेखा बनाने और उन पर बाद विवाद करने के वृहद अवसर के रूप में देखा गया।
आर्द्रभूमियों के क्षय की समस्याएं, योजनाएं तथा समाधान
शहरी आर्द्रभूमियों की सुरक्षा से जुड़ी मुख्य समस्या ये है कि जब भी शहरों में जैव विविधता के कोष जलाशयों की देखरेख की बातचीत होती है तो एक मजबूत संस्थागत तंत्र की कमी नज़र आती है। देश में झीलों के पुनः प्रवर्तन के अधिकांश कार्यक्रमों में एक व्यापक दृष्टि का अभाव नज़र आता है।
सन् 2050 तक वर्तमान शहरों में निवास करने वाली जनसंख्या में 416 मिलियन लोग शामिल हो जाएंगे और इसके परिणाम स्वरूप शहरी क्षेत्रों में सस्टेनेबल विकास की समस्याओं का संकेंद्रण हो जाएगा। इस बात की पुष्टि दिल्ली के 'अर्बन डिज़ाइन एण्ड स्कूल ऑफ़ प्लैनिंग एण्ड आर्किटेक्चर'( शहरी रचना एवम नियोजन तथा वास्तुकला स्कूल) के पूर्व अध्यक्ष प्रो.के.टी. रविन्द्रन ने की, वे भी आर्द्रभूमियों को प्रभावित करने वाली दूसरी मुख्य समस्या– विश्व के जलवायु संकट के विषय में बोल रहे थे।
यद्यपि विश्वनाथ ने इस बात पर प्रकाश डाला कि भारत के नागरिक शहरी क्षेत्रों में जल निकायों में गिरावट को रोकने के लिए सामने आ रहे हैं। तथापि उन्होंने यह भी कहा कि, "उन्हें देश की आर्द्रभूमि के संकट से निपटने के लिए नियोजन और देखरेख के साथ जुड़ने की आवश्यकता है।"
भारत सरकार के 'पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय' की सह सचिव 'डॉ. मधु पांडेय' ने व्यक्त किया कि भारत में स्थानीय स्तर पर 'रामसर परम्परा' को भी लागू किया जा सकता है। उन्होंने साझा किया कि भारत में जल राज्यों का विषय है और इसलिए सन् 2017 में इस संकट से निपटने के लिए राज्य आर्दरभूमि प्राधिकरणों का निर्माण किया गया।
वैश्विक निर्धारण एवं दिशानिर्देशों के साथ मेल
नए शहरी आर्दक्षेत्रों के निर्माण के लिए नए उपाय अपनाए जा रहे हैं जो वर्तमान शहरों की संरचनाओं के साथ सुसंगत हों। भारत के पड़ोसी देशों- श्रीलंका और चीन ने कई वर्ष पूर्व अपनी आर्द्रभूमियों के संरक्षण के लिए कार्यक्रम प्रारम्भ किए थे और वर्तमान में वे वैश्विक आन्दोलन के साथ एकीकृत रूप में अपने शहरों के आर्द्रभूमि संकट को सफ़लता पूर्वक संभाल रहे हैं। चीन की सरकार ने इस वेबीनार के एक नामित वक्ता और "सोसायटी औफ़ वेटलैंड साइंटिस्ट्स, यूरोप चैप्टर" के अध्यक्ष डॉ. मैथ्यू सिंपसन, जिन्होंने यूरोप के आर्दक्षेत्रों की स्थिति पर चर्चा की, के साथ मिलकर कार्य किया।
भारत में भी हाल ही में पूरे देश में रामसर परम्परामें उल्लिखित रूपरेखा के आधार पर कुछ नीतियों और नियोजन की पहल को प्रारम्भ किया गया है। भारत के 'पर्यावरण मंत्रालय' के वर्तमान दिशानिर्देशों में अन्य बिन्दुओं के साथ यह शामिल है कि राज्यों को आर्दक्षेत्रों की एक विस्तृत सूची बनाने, उन्हें चित्रित करने, और उन गतिविधियों की सूची विकसित करने के लिए सहायता की जाएगी जिन्हें आर्द्रभूमियों के एकीकृत प्रबन्धन के लिए विनियमित, स्वीकृत तथा लागू किया जाएगा।
अब आवश्यकता इस बात की है कि विश्व भर में स्वस्थ शहरोज के विकास और आर्द्रभूमि क्षय के संकट से लडने के लिए एक मजबूत नेटवर्क और संपर्क सूत्र सुनिश्चित करने हेतु एक व्यापक आंदोलन चलाया जाए।
Nupur is a writer with 100 issues to learn and dream about. She chooses to write about harmony between nature and human ecologies when she is not pursuing other issues, or strumming the guitar for new songs.