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सस्टेनेबल तरीकों से कहिए अलविदा

सस्टेनेबल तरीकों से कहिए अलविदा

Yashodhara Sirur
  • जब अंतिम संस्कार जैसा विषय हो तो परंपराओं की तरफ़ रुझान स्वाभाविक और आसान बात है। पर मृत्यु से जुड़ी इन परम्पराओं के लिए हम एक पर्यावरण हितैषी राह भी बना सकते हैं।

हम सब संपोषणीय यानी सस्टेनेबल तौर तरीकों से रहने की इच्छा रखते हैं। हम पेड़ पौधें उगाते हैं, प्लास्टिक का बहिष्कार करते हैं, कम्पोस्ट करते हैं, रीसाईकल करते हैं, अपनी डाइट में बदलाव लाते हैं और बहुत सी सुविधाओं को त्याग देते हैं। ये सब केवल इसलिए ताकि हमारा कार्बन फ़ुटप्रिंट कम रहे यानी हमारे कारण उत्सर्जित हुई ग्रीनहाउस गैस की मात्रा कम रहे। हम अपने जीवन पर तो बहुत विचार करते हैं पर मृत्यु को भूल ही जाते हैं। हमे यह सवाल पूछना ज़रूरी है कि सस्टेनेबल जीवन के साथ-साथ हम सस्टेनेबल मृत्यु पर ध्यान कैसे दे सकते हैं।

यह सच है कि यह विषय नापसंद किया जाता है क्योंकि कोई भी अपनी नश्वरता के बारे में नहीं सोचना चाहता है, पर यह चर्चा करना भी ज़रूरी है। इसी विषय की अहमियत को पहचान एथिको ने इस लेख में कुछ नए और अलग-अलग विचार प्रस्तुत किए हैं। पर्यावरण को लेकर सचेत रहने वाले किसी भी व्यक्ति को यह जान कर आराम मिलेगा कि मृत्यु के बाद भी वह पर्यावरण को हानि नहीं पहुँचाएंगे।

भारत की वर्तमान परिस्थितियाँ
भारत मे दाह संस्कार और शवाधान दो सबसे प्रचलित परम्पराएँ हैं। पर दोनों ही तरीके पर्यावरण को बहुत हानि पहुँचाते हैं। पारंपरिक दाह संस्कार खुली चिता पर किया जाता है, जिसके लिए लगभग ४०८ किलोग्राम लकड़ी चाहिए होती है, इसी के साथ किरोसीन का तेल भी या फिर पेट्रोल की श्रेणी का कोई और तेल। दाह संस्कार के लिए भारत में हर साल ५० से ६० मिलियन पेड़ जलाए जाते हैं!

The traditional wooden pyre. Image Source: Pinterest

इससे केवल वन-कटाई, वन-नाशन और पेड़ों को काटने और लकड़ियों को बेचना के अवैध व्यापार को ही बढ़ावा नहीं मिलता, बल्कि शरीर को जलाने के कारण बहुत ही भारी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन भी होता है। यह हवा की गुणवत्ता को भी नुक़सान पहुँचाता है, एक ऐसी समस्या जिससे शहरी इलाके पहले से ही जूझ रहें हैं। यही नहीं, अधिकतम मैदान, जहाँ अंतिम संस्कार किया जाता है, नदी के पास होते हैं जिस वजह से नदी भी प्रदूषित होती है।

शवाधान भी पर्यावरण के लिए एक बेहतरीन विकल्प नहीं है। मृत शरीर को दफ़नाने से पहले फ़ॉरमैलडीहाईड से संसाधित किया जाता है। फ़ॉरमैलडीहाईड एक कारसिनोजेनिक है यानी एक ऐसा पदार्थ जिससे शरीर में कैंसर हो सकता है या कैंसर होने की संभावना को बढ़ा सकता है। यह एक प्रदूषक पदार्थ भी है। यही नहीं, शरीर को क़फ़न में बंद करने के बाद दफ़नाया जाता है, जिस वजह से शरीर के सड़ने और खंडित होने की प्रक्रिया में देरी आती है। ज़मीन भी अब एक बहुमूल्य संपत्ति बन चुकी है, बढ़ते शमशानों के ज़मीन प्रदान करते रहना निश्चित ही एक सस्टेनेबल उपाय नहीं है।

Traditional ground burial. Image Source: Getty Images

उपयुक्त परिस्थितियों में हमारे शरीर का इस धरती की मिट्टी से स्वाभाविक मिलन संभव होता, पर धार्मिक और क़ानूनी कारणों की वजह से हम इन पारंपरिक तरीकों में केवल थोड़ा ही सुधार ला सकते हैं। वर्तमान काल में, भारत में निम्नलिखित विकल्प मौजूद हैं:

१. लकड़ी नहीं, दाह संस्कार के लिए गोबर के बने लठ्ठे चुने
२०१८ के मध्य में नगर पालिका निगम रायपुर ने दाह संस्कार के लिए लकड़ियों की जगह गोबर के लठ्ठों का प्रयोग करने का फ़ैसला लिया। भारत के कई हिस्सों में ऐसे परिवार हैं जो चिता को बनाने के लिए लकड़ियों और गोबर के उपलों दोनों का ही इस्तेमाल करते हैं, यह कोई असाधारण बात नहीं। पर रायपुर में एक खास मशीन है जो गोबर को लठ्ठों के आकार में बदल सकती है, इसे अपनाने के बाद लकड़ी का पूरी तरह से बहिष्कार करना संभव है। भारत के अन्य शहर, जैसे नागपुर और जयपुर में दाह संस्कार के लिए उपलों के इस्तेमाल से संबंधित कुछ पर्यावरण हितैषी विकल्प मौजूद हैं।

Cow dung logs used for cremation.

२. खुले में नहीं, बंद जगह में कीजिए अंतिम संस्कार
१९६० के दशक से ही भारत सरकार ने पारंपरिक चिता के इस्तेमाल से उत्पन्न होने वाली समस्याओं को कम करने की कोशिश की है। ऐसा गैस की भट्टी और बिजली का इस्तेमाल करने वाले मसानों द्वारा किया गया। इन तरीकों का कार्बन फ़ुटप्रिंट छोटा है और यह दाह संस्कार के लिए ज़्यादा स्वच्छ विकल्प हैं। पर कुछ धार्मिक धारणाएँ इन विकल्पों को अपनाने की राह में बाधा बनती हैं। हिन्दू धर्म के मुताबिक, खुली चिता मृत इंसान की आत्मा को स्वर्ग में जाने में समर्थ करती है। ऐसे में एक बंद भट्टी आत्मा के लिए बाधा बन सकती है। ऊपर से कुछ ऐसे रिवाज़ जो खुली चिता पर किए जाते हैं, एक बंद जगह पर करना संभव नहीं। यही कारण है कि आम जनता इन्हें अपनाने में हिचकिचाती है।

Natural gas cremation chamber. Image Source: Getty Images

पर कोरोना वायरस की महामारी के इस काल में कई राज्य सरकारों ने कोरोना के कारण हुई मृत्यु के लिए, गैस की भट्टी का इस्तेमाल या बिजली का इस्तेमाल करने वाले मसानों में, शरीर को जलाना अनिवार्य बना दिया है, चाहे इंसान किसी भी धर्म में विश्वास रखता हो। यह मुंबई जैसे शहरों में एक समस्या बन गई है जहाँ मृत्यु का आँकड़ा बड़ा है और उचित सुविधाएँ कम हैं। इनमें से कई सुविधाएँ चालू भी नहीं हैं। ऐसे समय में, नगर पालिकाओं के लिए यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि ये सुविधाएँ चलती रहें और नए इंतज़ाम जल्द से जल्द किए जाए।

३. ग्रीन क्रेमेशन पर विचार कीजिए
परंपरावादी लोगों की अनिच्छा को ध्यान में रखते हुए, दिल्ली में आधारित, मोक्षदा पी.ई.वी.एस.एस नामक एक गैर सरकारी संस्था ने एक बेहतरीन उपाय ढूंढ निकाला है। ऐसा उपाय जिसमें धार्मिक रिवाज़ और खुली चिता से ज़्यादा स्वच्छ अंतिम संस्कार, दोनों ही करना मुमकिन हैं। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमे चिता को पूरी तरह खुले में नहीं रखा जाता, इसमें लकड़ी और उपलों दोनों का इस्तेमाल किया जाता है और इसके बेहतरीन डिज़ाइन की वजह से दहन/ज्वलन की प्रक्रिया ज़्यादा सफ़ल और प्रभावशाली है। जिस कक्ष में दहन किया जाता है, वह ज़्यादा उष्मा कैद कर सकता है जिस वजह से आग और भी ज़्यादा गर्म रहती है। यह सभी विशेषताएँ लकड़ी की मात्रा को १५९ किलोग्राम तक घटा सकती है, जो खुली चिता की ४०८ किलोग्राम मात्रा की तुलना में बहुत कम है। मोक्षदा के ये ग्रीन क्रेमेशन सिस्टम्स अब भारत के ५० शहरों में मौजूद हैं। अबतक, १.५ लाख से भी ज़्यादा दाह संस्कार इस व्यवस्था का इस्तेमाल कर किए गए हैं, जिस वजह से ४.८ लाख पेड़ बचे और ग्रीनहाउस गैस एवं राख का उत्सर्जन भी कम हुआ।

The Mokshda cremation system uses an efficient combustion technology that reduces wood consumption by one-third. Image Source: Photo Shelter.

४. क़फ़न का नहीं, कपड़े का इस्तेमाल करें
पर्यावरण हितैषी शवाधान फ़िलहाल भारत में बहुत ही कम लोगों द्वारा अपनाया गया है। पर एक तरीका है जिसमें हम क़फ़न का इस्तेमाल बंद कर सकते हैं। वह कैसे? द चर्च ऑफ ऑर्लेम, जो मुंबई के मालाड के पास मौजूद है, ने २०१८ से चर्च में आने वाले लोगों को कपड़े का इस्तेमाल कर दफ़नाने की व्यवस्था प्रदान करनी शुरू कर दी है। क़फ़न की जगह शरीर को कपड़े में लपेट कर दफ़नाया जाता है। इससे सड़ने और खंडित होने की प्राकृतिक प्रक्रिया जल्दी से हो पाती है। क़फ़न ना इस्तेमाल करने से लकड़ी और क़फ़न को बनाने में इस्तेमाल किए जाने वाले अन्य पदार्थो की भी बचत होती है और भूजल भी कम प्रदूषित होता है।

अन्य देश क्या कर रहें हैं
फ़िलहाल भारत में केवल कुछ ही विकल्प मौजूद हैं, पर वैश्विक स्तर पर और बेहतरीन और ग्रीन उपाय मौजूद हैं। पूरे विश्व में ऐसे स्थल खोल दिए गए हैं जहाँ ग्रीन शवाधान मुमकिन है। शरीर को जला कर अस्थियों को वन या फिर ऐसी जगह दफ़नाया जाता है जहाँ पेड़ मौजूद हों। कुछ शमशान, किस पेड़ के नीचे अस्थियाँ दफ़न हो, यह चुनने के भी सुविधा प्रदान करते हैं।

Image Source: Capsula Mundi

कैप्सुला मनडाई नामक संस्था बायोडिग्रेडेबल पॉड्स यानी कक्ष बना रहीं हैं जिनमें अस्थियों को रखकर दफ़नाया जा सकता है और उसके ऊपर एक पेड़ उगाया जा सकता है। यह संस्था अब ऐसे पॉड्स बनाने की कोशिश में है जिसमे पूरा शरीर रखा जा सके और शवाधान करने की प्रक्रिया को पूरी तरह हटाया जा सके।

एल्कलाइन हाईड्रॉलीसिस एक और नया तरीका है, हालांकि यह अभी विवादग्रस्त है। यह कैनेडा, अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम जैसे देशों में उलब्ध है। इस प्रक्रिया में एल्कलाइन हाईड्रॉलीसिस का इसतेमाल शरीर को पूरी तरह गलाने के लिए किया जाता है, अंत में केवल हड्डियों का ढाँचा बचता है। कुछ रसायनिक तत्वों के अलावा, जैसे कि अमीनो एसिड्स और पेप्टाइड्स, कुछ भी नहीं बचता यहाँ तक की डी.एन.ए भी नहीं। बचे हुए तरल पदार्थ को पानी के साथ मिला, नाली में बहा दिया जाता है। हड्डियों को क्रेम्युलटर नामक मशीन में डाल कर पाउडर में बदल दिया जाता है।

इन तौर तरीकों को पूरी तरह अपनाने में समय लगेगा। फ़िलहाल, जब बात हमारे प्रिय लोगों को अलविदा कहने की है, तो हमे अपनी सोच बड़ी और प्रगतिशील रखनी चाहिए। हम सभी को इस दुनिया से विदा होना हैं, इस सच के पीछे जो तौर तरीकें हैं, उनमें आ रहे बदलाव को पूरी तरह अपनाए।

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